लोकतंत्र का पतीला चुनाव की खिचड़ी नतीजों का घी चुनाव आयोग की आँच
-Virendra Dev Gaur-
छोटे भारत अर्थात् उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रचार अपने चरम की ओर लपक रहा है। सभी दल बढ़-चढ़कर दावे कर रहे हैं। सभी प्रतिभागी दल चुनाव में पहलवान की हैसियत से पिले पड़े हैं। इनके लिए चुनाव दंगल बन चुका है। जय-पराजय के पलड़े समय के हाथों में झूल रहे हैं। युद्ध स्तर पर जुटे हैं राजनीतिक दल। इसे चुनाव कहना बेहतर नहीं। यह युद्ध है निर्माण और विध्वंस का। निर्माण उनके लिए है जो प्रदेश को प्रगति की पंक्ति में प्रथम स्थान पर लाने के लिए कटिबद्ध हैं। विध्वंस उनके लिए जो हर हाल हार से बचने की उछल कूद कर रहे हैं। प्रदेश ने सात साल पहले तक पिछड़ापन की मार खाई है। मार भी ऐसी कि रीड़ की हड्डी त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही थी। प्रदेश दंगों की लपटो में झुलस रहा था। प्रदेश की बेटियां स्वयं को अनाथ महसूस कर रही थीं। उन्हें लगता था कि उन्हें अपना पूरा जीवन असुरक्षा के भय में ही जीना पड़ेगा। कानून उनके हाथों में था जो कानून को जेब में रखकर चलते हैं। पुलिस उनकी थी जिनके हाथ में राजदंड (government) था यानि जो सरकार अपने मन से चला रहे थे संविधान से नहीं। ऐसी हालत थी कि पूँजी निवेश की बात प्रदेश में सुनी नहीं जाती थी। पूँजी निवेश का मुद्दा कभी बहस में नहीं आता था। जब किसी वरिष्ठ मंत्री की भैस चोरी हो जाती तो एसपी स्तर का अधिकारी भैंस ढूँढने निकल पड़ता था। मंत्री की भैंस फिर भी मिलती नहीं थी। किसकी जमीन किस पल हड़प ली जाए कोई नहीं कह सकता था। इसे कहते हैं सामाजिक अफरातफरी। इस अफरातफरी में भला कोई चैन की साँस ले सकता था। दंगे नियमित हो चले थे। राजा -रानी और रजवाड़े अपने किलों में आनन्द से रहते थे। जब उनसे कोई पत्रकार यह पूछता था कि लॉ एंड ऑर्डर (law and order) लगातार बिगड़ रहा है तो सुल्तान कहते थे, तुम तो सुरक्षित हो। पत्रकार हक्के-बक्के रह जाते थे। भ्रष्टाचार ने संस्कार का रूप ले लिया था। प्रदेश के लोगों को ऐसा लगने लगा था कि उनके मुस्तकबिल (destiny) में यही लिखा है और ऐसी विकराल स्थिति में पलायन ने प्रचंड रूप धारण कर लिया था। इसीलिए कहना पड़ रहा है कि लोकतंत्र के पतीले में चुनाव प्रचार की जो खिचड़ी पक रही है। क्या उसमें सच्चाई की जीत का घी घुल पाएगा और प्रदेश प्रगति पथ पर यो ही चलता रहेगा । राज्य चुनाव आयोग की आँच क्या इस खिचड़ी को ढंग से पका पाएगी। कहीं चुनाव आयोग भी सन्तुलन की ललक में ऐसे फैसले न कर बैठे जो इस बड़े प्रदेश के वातावरण को प्रदूषित कर सके। चुनाव आयोग को निडर होना पड़ेगा। एक को थप्पड़ दूसरे को डंड़ा नहीं चलेगा। जो गलत करे उसे सख्ती से दंड देना होगा। यही नीति चुनाव आयोग को पंजाब में भी अपनानी पड़ेगी। निर्भयता दिखानी पड़ेगी। अन्यथा, उन लोगों का दुस्साहस बढ़ेगा जिन्होंने सदैव कानून को खरीदने का काम किया है। भले ही राज्यों में राज्य चुनाव आयोग काम देखता है फिर भी राष्ट्रीय चुनाव आयोग के चरित्र की छाप ही राज्य चुनाव आयोगों पर पड़ेगी। इसलिए लोकतंत्र की परीक्षा तो राष्ट्रीय चुनाव आयोग को ही देनी है।