वीरेन्द्र देव गौड़
उत्तराखण्ड राज्य का निर्माण उत्तराखण्ड के चहुमुँखी विकास के लिए हुआ था। क्या आज 22 साल बाद हम दावे से यह कह पाएंगे कि राज्य का चहुमुँखी विकास हो रहा है। जिनके पास सत्ता है उनके पास सोच का होना भी जरूरी है। सोच के बिना सत्ता एक सूखे पत्ते की तरह है जो एक समय झड़ कर ख़ाक में मिल जाता है। हालाँकि, सयाने लोगों को पता है कि सत्ता के भोगी सत्ता के छप्पन भोगों का आनंद उठाते हैं और आम लोगांे को सूखे पत्ते की तरह झाड़ कर रख देते हैं। जब उत्तराखण्ड का आन्दोलन चल रहा था तब आन्दोलनकारियों के मुख से यही शब्द निकलते थे कि उत्तराखण्ड हो उत्तराखण्ड के लोगों के लिए। आन्दोलनकारी कहते थे कि उत्तराखण्ड के संसाधनों पर उत्तराखण्ड के लोगोें का ही अधिकार रहे। कहते हैं कि मौजूदा सत्ता दल ने ही राज्य को बनाया है। राज्य तो बन गया लेकिन क्या राज्य की आवश्यकताओं पर ध्यान दिया गया ? पलायन एक ऐसा बैरोमीटर है जो सत्ता में बैठे लोगांे की नीयत का सटीक आँकलन कर सकता है। तो चलिए, इसी बैरोमीटर का इस्तेमाल किया जाए और सत्ता प्रतिष्ठानों की ईमानदारी को जाँचा जाए। एक भारतीय होने के नाते मैं पौड़ी गढ़वाल में जन्मा। तो क्या पलायन का दर्द मैं समझ नहीं सकता। मैं तो पलायन का दर्द महसूस भी करता रहा हूँ। किसी भी देश की उन्नति तभी टिकाऊ होगी जब उस देश के लोग अपनी जड़़ों से जुड़े रहें। हम लोग चाहे जो भी काम करते हों क्या हम अपनी जड़ों से जुड़े हैं ? क्या हम अपने उन गाँवों को जहाँ हम जन्में, उन्हें उजड़ने से बचा पा रहे हैं। क्या हम वह शक्ति रखते हैं, जिससे हम अपने गाँवों की चहल पहल बरकरार रख सकें। क्या हम हर बात के लिए सत्ता को दोषी ठहराएंगे। कहीं ऐसा तो नहीं कि सत्ता के साथ-साथ हम सब भी दोषी हैं ? भले ही सत्ता सबसे बड़ी दोषी हो लेकिन हम भी निर्दोष नहीं। लिहाजा, दोनों पक्षों को जागरूक होना पड़ेगा। क्या हम इतने स्वार्थी और कमजोर हो चुके हैं कि सत्ता में बैठे लोगों को सही बात मनवाने के लिए मजबूर नहीं कर सकते ? यदि हम ऐसा नहीं कर सकते तो हम भी दोषी हैं। सीधी सी बात है कि अधिकतर लोग स्वभाव से ऐसे होते हैं कि वे अपना पैत्रिक निवास नहीं छोड़ना चाहते। काम और रोजगार उन्हें ऐसा करने को विवश कर देता है। इस विवशता को दूर करने का जिम्मा सरकार का होता है। यदि सरकार इस जिम्मेदारी को अपने कंधों पर नहीं उठाती तो सरकार की जमकर आलोचना की जानी चाहिए। यदि सरकार पलायन को थामने में असफल है तो सरकार को असफल ही कहा जाएगा। मौजूदा समय में उत्तराखण्ड के लोगों को प्रण करना चाहिए कि वे स्वयं को इतना ताकतवर बना देंगे कि सरकार पलायन के लिए व्यवहारिक कदम उठाने को तैयार हो सके। सरकार को इस कसौटी पर कसा जाए। अगर इस बैरोमीटर पर सरकार विफल रहती है तो सरकार को विफल माना जाना चाहिए। केन्द्र की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं उत्तराखण्ड में प्रगति पथ पर हैं। ऐसा माना जा रहा है कि इन परियोजनाओं के पूरा हो जाने पर पलायन पर अंकुश लगेगा। प्रतिगामी (रिवर्स) पलायन को बल मिलेगा। वैसे प्रतिगामी पलायन चल रहा है लेकिन इस प्रतिगामी पलायन में धन कमाने की इच्छा छिपी है। अपने मूल गाँवों की ओर लौटने की इच्छा नगण्य है। यह सत्य भी तो पीड़ादायक है। यही वजह है कि सरकारें पलायन को गंभीरता से नहीं लेंती। क्योंकि सत्ता मेें बैठे लोग भी तो हमारे घरों के ही हैं । वे सब जानते हैं। इसीलिए, वे लफ्फाजी का सहारा लेते हैं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि हम स्वयं ही पलायन के दोषी हैं। पलायन किसी भी समाज के लिए घातक सिद्ध होता है। इसलिए, जो सुविधाएं और आवश्यकताएं देहरादून , हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर में उपलब्ध हैं वही सब कुछ पलायन पीड़ित क्षेत्रों में भी होना चाहिए। जब पौड़ी गढ़वाल, अल्मोड़ा और चमोली के किसी ग्रामीण को एक दो किलोमीटर के फासले पर अस्पताल, चिकित्सक, दवाई और अन्य आवश्यकताएं उपलब्ध हो जाएंगी और उसे अपने गाँव के आसपास ही नौकरी मिल जाएगी, तो भला वह अपनी कूड़ी-पुंुगड़ी और खेत-खलिहान को क्यों छोड़ेगा ? मौजूदा राज्य सरकार को दाएं-बाएं की न हाँक कर यही काम करना चाहिए। ऐसे भी नौकरीशुदा लोग हैं जो पहाड़ के दूर दराज में पोस्टिंग हो जाने पर जमीन आसमान एक कर देते हैं। अपनी पोस्टिंग रूकवाने के लिए उछलकूद करते हैं। ऐसी मानसिकता के रहते पलायनवाद पर चोट कैसे होगी ? तभी तो लेखक ने पहले ही लिख दिया कि हम भी दोषी हैं। केवल सरकार को आड़े हाथों लेना पूर्वाग्रह ही कहा जाएगा। सरकार ने 2017 में पलायन पर अंकुश लगाने के लिए एक आयोग की स्थापना की थी। जिसे पलायन रोकने के लिए सुझाव देने थे। इस आयोग को साफगोई के साथ सामने आना चाहिए और वस्तुस्थिति को स्पष्ट करना चाहिए। इस आयोग को अपनी उपयोगिता सिद्ध करनी चाहिए। वरना, स्वयं को भंग करने की सिफारिश कर देनी चाहिए। जिसे देखो वही यह कहने से नहीं चूकता कि प्रतिदिन पहाड़ से कम से कम तीन सौ लोग पलायन कर रहे हैं। इस आँकड़े में दम है क्योंकि हम आप भी पहाड़ी हैं और हम भी पलायित होकर देहरादून जैसे नगरों में जीवन के आनन्द उठा रहे हैं। फिर ऊपर से यह कह रहे हैं कि लोग पलायन कर रहे हैं। हमें इन दोमुँही बातों से बाज आना पड़ेगा। हमें अपनी कमीज के दो बटन खोल कर अपने अन्दर झाँकना पड़ेगा। बेहतर हो कि हम आत्म चिन्तन करें। आत्म चिंतन के बाद ही हम सरकार को विवश कर सकेंगे कि वे ऐसी नीतियाँ बनाएं जिन पर चल कर पहाड़ों पर अच्छे स्कूल, अच्छे विश्वविद्यालय और अच्छे अस्पताल खुलें। यहीं से इस समस्या का निदान होगा। इसी के साथ यह भी कहना अनिवार्य है कि पहाड़ांे पर सघन भूमि जाँच के बाद वातावरण के अनुकूल मकान बनें जो किसी भी विपदा का सामना कर सकें। ऐसा करके हम आपदा न्यूनीकरण की दिशा में कारगर कदम उठा पाएंगे और पलायन की समस्या से मुक्त हो पाएंगे। पलायन एक भस्मासुर का रूप लेता जा रहा है जो हमारे सामाजिक तानेबाने को भस्म कर देगा। आइए, इस भस्मासुर का मिल कर इलाज करें। लेखक ने आँकड़ेबाजी में आपको नहीं उलझाया। बल्कि, आपके सामने सम्पूर्ण सच्चाई को उघाड़ कर रख दिया है। अब, हमें मिल कर सरकार को प्रेरित करना है।
पहाड़ी जिलोें को पलायन की पीड़ा से मुक्त करो
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