-virendra dev gaur-
पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मतदाता आज मतदान उत्सव मना रहा है। सुबह-सुबह लोग कतारों में खड़े हैं। इस क्षेत्र में किसानों का दबदबा रहता है। वे किसी भी प्रत्याशी को हराने और जिताने की ताकत रखते हैं। दिल्ली की सीमा पर लगभग एक साल चले आन्दोलन को किसान आन्दोलन कहा गया। सरकार के तीन कानूनों को काले कानून कहा गया। सरकार ने तीनों कानून वापस ले लिए फिर भी कथित आन्दोलन के नेताओं ने अपनी त्योरियाँ ढ़ीली नहीं की। बल्कि पलट कर यह कहना शुरू कर दिया कि कानून वापस लेने ही थे तो एक साल की इंतजार के बाद क्यों । इस तरह आन्दोलन के बाद भी आन्दोलन। यह मोदी युग में एक नया पैटर्न देखने को मिल रहा है। कानून बनाने पर गाली और कानून वापस लेने पर भी गाली। कानून बनाने पर सबक सिखाने की धमकी और कानून वापस लेने के बाद भी सबक सिखाने की धमकी। यही कारण है कि लेखक इसे आन्दोलन न कह कर कथित आन्दोलन कह रहा है। अगर इस बेल्ट के मतदाता मोदी समर्थकों को हरा देते हैं तो यह मान लिया जाएगा कि वे कानून वाकई काले कानून थे। यदि ऐसा नहीं हुआ और मोदी के समर्थक लगभग 35 सीटें जीत लेते हैं तो यही माना जाएगा कि कानून छोटे और मझोले किसानों के पक्ष में थे। 10 मार्च का नतीजा इसी दावे का परीक्षण करेगा और योगी-मोदी की लोकप्रियता को या तो परवान चढ़ाएगा या फिर इन्हें चिढ़ाएगा।